
डब्ल्यूएचओ की 2017 की एक रिपोर्ट में 20 फीसदी भारतीयों के अवसादग्रस्त होने की आशंका जताई गई है। भारत उन देशों की सूची में आगे है, जहां मानसिक व स्वभाव संबंधी विकारों का बोझ बहुत अधिक है।
दुनिया भर में मानसिक स्वास्थ्य विकारों की समस्या अनुमान से कहीं ज्यादा गंभीर है। अध्ययनों के अनुसार, दुनिया पर समस्त बीमारियों का कुल जितना बोझ है, उसमें से 15 प्रतिशत हिस्सेदारी मानसिक समस्याओं की है।
मानसिक रोगों में बहुत सी समस्याएं शामिल हैं, जैसे ऑटिज्म, बचपन में बौद्धिक अपंगता, अवसाद, व्यग्रता, नशीले पदार्थों का सेवन, वयस्क होने पर कई मनोविकार और बुढ़ापे में मनोभ्रम आदि। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हैल्थ एंड न्यूरोसाइंस के अनुसार, लगभग 14 फीसदी भारतीय मानसिक समस्याओं से पीड़ित हैं और उनमें से 10 प्रतिशत को तत्काल उपचार की जरूरत है।
आंकड़ों के अनुसार, दुनिया भर में हर साल डिप्रेशन और बेचैनी की वजह से उत्पादन में करीब 1 ट्रिलियन यूएस डॉलर का नुकसान होता है। भारत में कॉरपोरेट सेक्टर में कार्यरत 42.5 फीसदी कर्मचारी अवसाद या किसी किस्म के व्यग्रता विकार से पीडि़त हैं।
मुख्य चुनौती-
अकसर इस मुद्दे को सामाजिक लांछन के तौर पर लिया जाता है। मानसिक स्वास्थ्य विकारों से जूझ रहे लोगों के लिए प्राय: पागल, रिटार्टेड, मेंटल, क्रेजी जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा कुछ पूर्वाग्रह भी रहते हैं, जैसे मानसिक रोग से ग्रस्त लोग हमेशा हिंसक होते हैं या अवसाद ग्रस्त लोगों से एक सुरक्षित दूरी बना कर रखनी चाहिए। इस तरह इससे पीड़ित लोगों को छवि बिगड़ने की आशंका सताती रहती है।
अंधविश्वास भी हमारे यहां बहुत है। ओझा-तांत्रिक जैसे लोग बीच में आ जाते हैं, जिससे सही इलाज में देरी हो जाती है। कई बार परिजन और मित्र भी ऐसे लोगों को उनके हाल पर छोड़ देते हैं। किशोरों पर खास ध्यान देने की जरूरत है। हमारे देश की 18 प्रतिशत आबादी किशोरों की है। आंकड़े बताते हैं कि 13 से 17 वर्षीय बच्चों में मानसिक स्वास्थ्य विकारों का प्रतिशत 7़ 3 है।
विशेषज्ञों के अनुसार, इसके संकेतों को पहचानना बहुत जरूरी है। जैसे, मूड में तेजी से उतार-चढ़ाव, आवेग, एकाग्रता में कमी, शारीरिक नुकसान, नशीले पदार्थों का सेवन। परिवार के सदस्यों, दोस्तों, शिक्षकों को इन लक्षणों के बारे में जानने की जरूरत है। वयस्कों में भी उदासीनता, मूड, नींद व भूख में बदलाव, संवेदनशीलता बढ़ने, अलग-थलग महसूस करने जैसे लक्षणों पर गौर करना जरूरी है।
यही वह स्थिति है, जब सहकर्मियों व करीबियों को सपोर्ट सिस्टम के तौर पर काम करना चाहिए। इसके अलावा भारत में जीवन प्रत्याशा में बढ़त के साथ यह भी जरूरी है कि वरिष्ठ नागरिकों में मनोभ्रम व अवसाद के मुद्दों पर फोकस किया जाए। याददाश्त खोने, रोज किए जाने वाले कार्यों में भी सक्षम न होने, सही फैसले न कर पाने, वक्त व जगह के बारे में परेशान रहने, जैसे लक्षण दिखाई दें तो तुरंत रोगी को चिकित्सीय मदद देनी चाहिए।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमानों के मुताबिक, वर्ष 2012 से 2030 के बीच भारत को मानसिक रोगों की वजह से 1़ 03 ट्रिलियन यूएस डॉलर का नुकसान उठाना होगा। हमारे यहां करीब 20 प्रतिशत आबादी किसी न किसी किस्म के मानसिक रोग से जूझ रही है। भारत में तुरंत कदम उठाए जाने की जरूरत है। कारण, दक्षिण पूर्व एशिया में आत्महत्या की सर्वोच्च दर यहीं है और महिला आत्महत्याओं के मामले में हमारा देश दुनिया में छठे स्थान पर है।
शोध बताते हैं कि विवाहित महिलाओं के अवसादग्रस्त होने की ज्यादा आशंका रहती है। सामाजिक अपेक्षाओं की वजह से उनका बोझ 50 प्रतिशत तक बढ़ता है। इसका नतीजा तलाक या अलगाव के रूप में भी दिखता है। देश में मानसिक स्वास्थ्यकर्मियों की भी भारी कमी है। हमारे यहां प्रति एक लाख आबादी पर केवल 0़ 3 मनोचिकित्सक, 0़12 नर्स, 0़7 मनोविज्ञानी और 0.07 सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इतना ही नहीं, मानसिक समस्याओं से जूझ रहे केवल 10-12 प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं, जो इलाज करा सकते हैं।
सरकार द्वारा उठाए जा रहे कदम-
भारत सरकार ने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य नीति 2014 उन प्रमुख कदमों में से एक है, जिनके जरिये मानसिक स्वास्थ्य विकारों के उपचार हेतु नीतिगत ढांचा विकसित किया जाएगा। एक अन्य अहम हस्तक्षेप है-मेंटल हैल्थकेयर ऐक्ट 2017, जो मानसिक रोगों से पीडि़त लोगों के अधिकारों की रक्षा करेगा, उन्हें प्रोत्साहन देगा और उन्हें हर तरह की मदद करेगा।
हालांकि मानसिक स्वास्थ्य व्यय के मामले में भारत अभी काफी पीछे है। स्वास्थ्य बजट का सिर्फ 0.06 फीसद ही मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च होता है। यह जरूरी है कि स्वच्छ भारत अभियान की ही तरह मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता पैदा की जाए। दीपिका पादुकोण व अनुष्का शर्मा जैसी बॉलीवुड अभिनेत्रियां स्वयं मानसिक समस्याओं से जूझ चुकी हैं और उन्होंने इस बारे में खुल कर बात की है।
मानसिक विकारों के मुद्दे पर और भी संवेदनशीलता बढ़ाने की जरूरत है। रणनीतियों को प्रभावी ढंग से लागू करने और उसमें वित्तीय सहयोग को बढ़ावा देने की जरूरत है। मानसिक रोगों के उपचार में भी वही नजरिया रखना होगा, जो अन्य रोगों में अपनाया जाता है।