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बालेश्वर मांझी ने स्कूल के लिए दान कर दी अपनी सारी जमीन

by समाचार पटल
अगस्त 9, 2019
Reading Time: 1 min

गया– इतिहास में दानवीर कर्ण का जिक्र है, जो पराक्रमी और सबल थे। गया में एक बालेश्वर मांझी है। दीन-हीन, दुर्बल, लेकिन दानवीर ऐसे कि उनके समक्ष श्रद्धा से बड़े-बड़ों के शीश झुक जाते हैं। गुजर-बसर के लिए सरकार से बीत्ता भर जमीन मिली थी।

अपने घरौंदे के लिए उसका एक कोना रखकर बाकी 27 डिसमिल जमीन वे विद्यालय के लिए दान कर दिए। खुद मजदूरी कर परिजनों का भरण-पोषण कर रहे। गया जिला में बाराचट्टी प्रखंड अति नक्सल प्रभावित है। उसी का एक गांव बलथर टोला कलवर है। दो दशक पहले तक उस गांव में कोई विद्यालय नहीं था और अगल-बगल के स्कूल कोसों दूर। गरीब-फटेहाल बच्चे बेवजह टकते रहते।

बालेश्वर मांझी को यह मंजूर नहीं था कि आने वाली पुस्तें भी उनके जैसे ही अभिशप्त हों। पहले तो उन्होंने प्राथमिक विद्यालय के लिए अपनी पांच डिसमिल जमीन दान की। उत्क्रमित कर उसे मध्य विद्यालय बनाने का मौका आया तो भी कोई दूसरा दाता नहीं मिला, जबकि गांव में कई भू-स्वामी हैं। समाज के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की प्रतिबद्धता वाले बालेश्वर ने अंतत: अपनी 22 डिसमिल जमीन भी दान कर दी। उनकी जमीन पर आज कलवर माध्यमिक विद्यालय का भवन सीना ताने खड़ा है।

विद्यालय में आज 326 विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर रहे। उनमें भी 178 छात्राएं। यह उस इलाके में बदलाव की कहानी है, जहां इस सदी की शुरुआत तक लड़कियां गांव से बाहर कदम तक नहीं रखती थीं। लड़के स्कूल के बजाय मजदूरी करने जाते थे। समवेत स्वर में ग्रामीण इस बदलाव का श्रेय बालेश्वर मांझी को दे रहे हैं। बालेश्वर के त्याग से स्थापित स्कूल में पढ़-लिखकर कई बच्चे ओहदेदार बन गए।

कई आज ऊंची कक्षाओं के विद्यार्थी हैं। बालेश्वर खुद नई पौध को सींच रहे। मजदूरी, विशेषकर राजमिस्‍त्री का काम, कर घर-गृहस्थी चलाते हैं और बाकी का समय स्कूल की देखरेख में लगा दे रहे। राष्ट्र निर्माण के लिए शिक्षा से बड़ा आधार शायद ही दूसरा हो और शिक्षा के लिए बालेश्वर जैसे दानवीर बिरले।

काले अक्षर नहीं पहचानते हैं, लेकिन जानते हैं उसके मोल: बालेश्वर खुद काले अक्षर नहीं पहचान पाते, लेकिन उसका मोल बखूबी जानते हैं। बताते हैं कि वर्ष 1994 में राजबाला वर्मा गया की जिलाधिकारी थीं। दौरे पर वे हमारे गांव आई थीं। हमारी बस्ती में चारों ओर गंदगी-बदहाली और बच्चों को सुअर चराते देख वे चिंतित हो गई। विद्यालय की स्थापना के लिए लोगों से जमीन की मांग कीं, लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ। मैंने सोचा कि अगर राजबाला पढ़-लिखकर हाकिम बन सकती हैं तो हम गरीबों के बच्चे क्यों नहीं? मेरे भी दो बच्चे हैं, वे भी पढ़-लिख जाएंगे और गांव-समाज का भला होगा।

मैं कौन-सा जमीन पकड़कर बैठा रहूंगा। अंतत: विद्यालय के लिए मैंने अपनी जमीन देने की हामी भर दी। प्राथमिक से उत्क्रमित होकर बना मध्य विद्यालय: बकौल बालेश्वर, 1984 में पांच डिसमिल जमीन दान किया। 1994 में प्राथमिक विद्यालय बनकर तैयार हुआ। सन् 2007 में इसे मध्य विद्यालय में उत्क्रमित करने के लिए अतिरिक्त जमीन की जरूरत पड़ी तो मैंने अपनी बाकी 22 डिसमिल जमीन भी विद्यालय के हवाले कर दिया। आज उसकी विद्यालय में मेरे पोता-पोती के साथ दूसरे बच्चे भी पढ़ रहे। उन्हें पढ़ते और आगे बढ़ते देख मेरी आंखें जुड़ा जाती हैं।

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