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Home विषय नागरिकता संशोधन कानून, 2019

पहले एनआरसी, अब कैब, एक वर्ष में नागरिकता से जुड़े दो ऐलान, दोनों का विरोध

by समाचार पटल
दिसम्बर 15, 2019
Reading Time: 1 min

नागरिकता संशोधन कानून (कैब) का देश में व्यापक विरोध हो रहा है। विशेषकर, पूर्वोत्तर के राज्यों में। एनआरसी के बाद यह दूसरा मौका है, जब नागरिकता से जुड़े इस ऐलान पर सरकार को लगातार सफाई देनी पड़ रही है। पूर्वोत्तर राज्यों में विरोध का यह आलम है कि गुस्साई भीड़ कर्फ्यू के बाद भी सड़कों पर उतरी हुई है। विश्वविद्यालय परिसरों से भी विरोध की आवाजें आई हैं। राज्यों में पिछले चार दिनों से इंटरनेट बंद है। कश्मीर के बाद पूर्वोत्तर की एक बड़ी आबादी अब इंटरनेट से कट गई है। पिछले चार वर्षों में यह पांचवीं बड़ी घटना है, जब सरकार को इंटरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ीं।

पिछले डेढ़ वर्ष में देखा जाए तो केन्द्र के कानून-प्रावधानों का राज्यों में लगातार विरोध बढ़ रहा है। शुरुआत रेरा से हुई थी, रियल एस्टेट से जुड़े इस कानून को पश्चिम बंगाल ने अभी तक स्वीकार नहीं किया है, बल्कि अपना नया नियम बना लिया है। इसके बाद उठा सीबीआई से जुड़ा विवाद। आंध्रप्रदेश-पश्चिम बंगाल सीबीआई को अपने राज्यों में संचालित से जुड़ी इजाजत वापस ले चुके हैं। कैब से पहले सबसे अधिक विरोध मोटर व्हीकल कानून ने भी झेला। न सिर्फ कांग्रेसी राज्य सरकारों ने कानून को लागू करने से ही मना कर दिया। बल्कि भाजपा शासित गुजरात में भी इस कानून का जबरदस्त विरोध हुआ। नतीजतन- सरकार को कई तरह के परिवर्तन करते हुए जुर्माने के प्रावधान घटाने पड़े। नागरिकता संशोधन बिल पर सरकार ने इस तेजी से कार्य किया कि यह एक सप्ताह में ही लोकसभा, राज्यसभा में पास होकर कानून में बदल गया। और इसी के साथ इसका विरोध उग्र होता चला गया।

नागरिकता संशोधन बिल के जरिए ‘ नागरिकता अधिनियम, 1955 में परिवर्तन किया गया है। इसके जरिए अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में धार्मिक प्रताड़ना के कारण भारत आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को नागरिकता मिलेगी। इन समुदायों के अवैध प्रवासी, जिन्होंने 31 दिसंबर 2014 तक भारत में प्रवेश कर लिया है, नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं।

नहीं, दूसरी बार लाया गया है। जनवरी, 2019 में भी सरकार ने यह कानून बनाने की प्रयास किया थी। 8 जनवरी, 2019 को लोकसभा से यह बिल पास भी हो गया था। लेकिन 16वीं लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होने से यह निष्प्रभावी हो गया।

पूर्वोत्तर राज्यों- असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश में प्रदर्शन कर रहे दलों का कहना है कि यहां बांग्लादेश से हिंदू बड़ी संख्या में आकर बसे हैं। हिंदुओं को नागरिकता मिलती है तो इन राज्यों के सामाजिक ताने-बाने पर प्रभाव पड़ेगा। नागरिकता संशोधन बिल में समय सीमा 31 दिसंबर 2014 निर्धारित की गई है। यह असम समझौते का उल्लंघन है। जिसके अंतर्गत असम के मूल निवासियों की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भाषाई पहचान और उनके धरोहरों के संरक्षण की प्रशासनिक व्यवस्था की गई थी।

अभी 31,313 लोग भारत में लंबी अवधि के वीजा पर रह रहे हैं। इन्हें तुरंत नागरिकता संशोधन बिल का लाभ मिलेगा। इनमें लगभग 25,000 से अधिक हिंदू, 5800 सिख, 55 ईसाई, दो बौद्ध और दो पारसी नागरिक सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त एनआरसी से बाहर किए गए लोगों में से हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदायों के उन लोगों को भी भारत की नागरिकता दी जाएगी जो पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए हैं। गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार देश में 2,89,394 लोग ऐसे भी हैं, जो स्टेटलेस हैं। यानी इनके पास किसी देश की नागरिकता नहीं है।

यूं तो दोनों ही नागरिकता से जुड़े हुए हैं। लेकिन दोनों में एक बड़ा फर्क है। एक नागरिकता देने से जुड़ा है। दूसरा अवैध निवासियों की पहचान से। धार्मिक उत्पीड़न के कारण से बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों को नागरिकता मिलेगी। 19 जुलाई 1948 के बाद भारत में प्रवेश करने वाले अवैध निवासियों की पहचान कर उन्हें देश से बाहर करने की प्रक्रिया पूरी की जाएगी। असम में एनआरसी के बाद 19 लाख लोगों को इससे बाहर किया गया है।

अब तक भारतीय नागरिकता लेने के लिए 11 वर्ष भारत में रहना अनिवार्य था। अवैध तरीके से भारत में प्रवेश करने वाले लोगों को नागरिकता नहीं मिल सकती थी और उन्हें वापस उनके देश भेजने या हिरासत में रखने का नियम था। नए बिल में प्रावधान है कि तीन पड़ोसी देशों के कला्पसंख्यक यदि पांच वर्ष भी भारत में रहे हों तो उन्हें नागरिकता दी जा सकती है।

केंद्र सरकार द्वारा बनाए हुए कानूनों को न मानना राज्य की सरकारों के लिए मुश्किल खड़ी कर सकता है। हाल ही में संसद के दोनों सदनों में पास हुए नागरिकता संशोधन बिल 2019 पर कई राज्य सरकारों ने इस कानून को लागू न करने की बात कही है। जबकि भारतीय संविधान की धारा 356 राज्यपाल को यह अधिकार देती है कि यदि किसी भी राज्य में केंद्र सरकार के दोनों सदनों द्वारा पास कानून को नहीं माना जा रहा या उसकी अवमानना की जा रही है, तब ऐसी स्थिति में वह उस राज्य सरकार की बर्खास्तगी के लिए राष्ट्रपति को लिख सकते हैं।

हालांकि किसी भी कानून को लागू करने के लिए राज्य सरकार व उसकी प्रशासनिक ताकत की भी केंद्र को आवश्यकता पड़ती है। भारतीय संविधान का भाग 11 यह बताता है कि राज्य और केंद्र के कैसे संबंध होने चाहिए। इस भाग में यह भी स्पष्ट किया गया है कि कोई भी राज्य केंद्र सरकार द्वारा बनाए हुए कानूनों को लागू करने से इंकार नहीं कर सकता। केंद्र सरकार राष्ट्रीय हित मे संविधान की धारा 249 का उपयोग करते हुए संसद में राज्य के लिए कानून तक बना सकती है।

संविधान की धारा 256 व 257 में यह स्पष्ट उल्लेख है कि राज्य सरकार केंद्र सरकार द्वारा पारित कानून को लागू करने से मना नहीं कर सकती। यदि किसी भी राज्य का मुख्यमंत्री कानून को न लागू करने के लिये मौखिक या लिखित आदेश जारी करता है, तो ऐसी स्थिति में राज्यपाल के पास संबंधित मुख्यमंत्री को चेतावनी देते हुए ऐसे वक्तव्य को वापस लेने के लिए कहने का भी अधिकार है। मुख्यमंत्री यदि न माने तो राज्यपाल द्वारा सरकार बर्खास्त करने का आदेश भी जारी किया जा सकता है।

राज्य सरकार कानून को लागू करने में विलम्ब तो कर सकती है पर यदि केंद्र चाहे तो राज्यों को आर्थिक सहायता देना बंद कर सकता है। केंद्र और राज्य की लड़ाई में कई कानूनों को लागू करने में समस्या रहती ही है। ठीक वैसे ही जैसे रेरा या फिर मोटर वाहन कानून को अभी भी कई राज्यों में पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका है। हालांकि नागरिकता संशोधन कानून केंद्र सरकार का विषय है, जिसको लागू करने के लिए केंद्र सरकार राज्यों को बाध्य भी कर सकती है।

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